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छत्रपति शिवाजी महाराज की कर्मयोग की दीक्षा .

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समर्थ रामदाश के श्री चरणों में शिवाजी महाराज ने संन्यासी होने की दीक्षा की मांग की , लेकिन समर्थ साईं ने कहा " में संन्यास की दीक्षा नहीं देता हु , कर्म संन्यास की दीक्षा देता हु , कर्म करते हुवे भी तुम संन्यासी की पद को पा सको , यवनों से जुल्मियो से समाज दब गया हे , शिवा अगर तुम संन्यासी हो जावोगे तो इश दबे हुवे समाज को कोन जगायेगा कोन सेवा करेगा में तुमे दीक्षा तो देता हु , लेकिन कर्म करते समय भी निर्लेप होने की दीक्षा देता हु " समर्थ ने गिरी गुफा में योग करने की दीक्षा नहीं दी , मठ मंदिर में बैठकर साधना करने की दीक्षा नहीं दी , युध्ध करते समय भी साधना का फायदा मिले ऐसी दीक्षा दे दी . शिवाजी महाराज को दीक्षा देते समय प्रसादी में   दो चुल्लू (खोबा) भरकर मिटटी दी  . दूसरी प्रसादी दी घोड़े की लिट् खोबा भरके और तीसरी प्रसादी दी नारयेल .  शिवाजी तीनो प्रसादी लेकर माँ के पास पहुचे , " माँ गुरुजी ने दीक्षा की प्रसादी में ये दिया मेरेको , मिटटी दी में रहस्य नहीं समज़ा ".  माँ ने कहा " बेटा गुरु ने मिटटी दी तू महीपति बनेगा (राजा बनेगा ) , लिट् दी हे तेरे बसतल...