जन्म और बाल्यकाल
सिन्धु नदी के तट पर स्थित सिंध प्रदेश (पाकिस्तान) के हैदराबाद जिल्हे
के महराब चन्दाइ नामक गांव में ब्रह्म क्षत्रिय कुल में श्री टोपनदास
गंगाराम जी का जनम हुवा था। वे गांव के सरपंच थे। साधू संतो के लिए उनके
दिल में सम्मान था। उनकी दो पुत्रियाँ थी पर उनको पुत्र नही था। एक बार
पुत्र इच्छा से प्रेरित होकर श्री टोपनदास अपने कुलगुरु श्री रतन भगत के
दर्शन के लिए पास के गांव तल्हार में गए और वहां पर हाथ जोड़कर अपनी पुत्र
इच्छा कुलगुरु को बताई. कुल गुरु ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हुवे
कहा :- " तुम्हे १२ महीने के भीतर पुत्र होगा जो केवल तुम्हारे कुल का ही
नही परन्तु पुरे ब्रह्म क्षत्रिय समाज का नाम रोशन करेगा. जब बालक समझने
योग्य हो जाए तब मुझे सोंप देना" संत के आशीर्वाद से, सिन्धी पंचाग के
अनुसार संवत १९३७ के २३ फाल्गुन के शुभ दिवस पर टोपनदास के घर उनकी
धर्मपत्नी हेमीबाई के कोख से एक सुपुत्र का जनम हुवा. जनम कुंडली के अनुसार
बालक का नाम लीलाराम रखा गया। पाँच वर्ष की अबोध अवस्था में ही सिर पर से
माता का साया चला गया, तब चाचा और चाची ने प्रेमपूर्वक श्री लीलाराम जी के
लालन पालन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. पाँच वर्ष के उमर में अपने
कुलगुरु को दिए हुवे वचन को निभाने के लिए श्री टोपनदास बालक श्री लीलाराम
जी को कुलगुरु संत रतन भगत के पास ले गए। संत श्री रतन भगत ने कहा :- "
बालक को आज तुम खुशी से वापस ले जाओ लेकिन वह तुम्हारे घर में हमेशा नही
रहेगा. योग्य समय आने पर वह वापस हमारे पास आ ही जाएगा."
जब श्री लीलाराम जी दस वर्ष के हुवे तब उनके पिता जी का देहावसान हो गया।
जीवन में परिवर्तन
जब श्री लीलाशाह जी १२ वर्ष के हुवे तब उन्हें उनकी बुवा के पुत्र लखुमल की
किराने की दुकान पर काम करने के लिए जाना पड़ा ताकि वे जगत के व्यवहार और
दुनियादारी समझ सके. एक समय की बात है :- उस वर्ष मारवाड़ और थार में बड़ा
अकाल पड़ा था। लखुमल ने पैसे देकर श्री लीलाशाह को दुकान के लिए खरीदी करने
के लिए भेजा. श्री लीलाशाह मॉल सामान की दो बैलगाडियां भरकर अपने गाँव लोट
रहे थे, रास्ते में गरीब और भूखे लोगो ने श्री लीलाशाह को घेर लिया।
दुर्बल और भूख से व्याकुल लोगो को देखकर दोनों बैलगाडियों का सामान उन लोगो
में बाँट दिया. उस समय तो श्री लीलाशाह जी ने दया के वश होकर सब कुछ दान
कर दिया पर बाद में वे चुपचाप डरते हुवे खाली बोरे गोदाम में रखकर चाबी
लखुमल को दे दी. दुसरे दिन श्री लीलाशाह जी दुकान पर गए ही नही, लखुमल से
क्या बोलेंगे ये सोच सोच कर ही उन्हें घबराहट हो रही थी। एक दिन.. दो
दिन... तीन दिन.. श्री लीलाशाह जी बुखार का बहाना बनाकर दिन बिता रहे थे और
भगवन से प्रार्थना कर रहे थे की हे भगवन अब तू ही रास्ता दिखा. एक दिन
अचानक लखुमल श्री लीलाशाह जी के पास आए और बोले वाह लीला क्या अच्छा माल
लेकर आए हो. श्री लीलाशाह जी आश्चर्य से कहने लगे आप क्या कह रहे है। जब वे
दोनों गोदाम में पहुचे तब खाली बोरे भरे हुवे मिले. तब श्री लीलाशाह जी ने
निश्चय किया की जिस परमात्मा ने मेरी लाज रखी.....गोदाम में बाहर से ताला
होने पर भी भीतर के खाली बोरों को भर देने की जिसमे शक्ति है, अब में उसी
परमात्मा को खोजूंगा... उसके अस्तित्व को जानूंगा. फ़िर तो श्री लीलाशाह जी
के साथ कई बार ऐसा हुवा कि लखुमल पैसा देते खरीदी के लिए और श्री लीलाशाह
जी सारा माल गरीबों में बाट देते.. आखिर में लखुमल को भी ये सारी बातें
मालूम पड़ गई और उन्हें यह भी मालूम पड़ गया कि ये कोई साधारण बालक नही है
ये तो कोई अलोकिक बालक है।
सन्यास और गुरु मिलन
जब कुलगुरु श्री रतन भगत ने देह त्यागा तब उनकी गद्दी पर उनके शिष्य श्री
तोरनमल को बैठाया गया, थोड़े समय के पश्चात वे भी संसार से अलविदा हो गए तब
शिष्यों ने श्री लीलाशाह जी को गद्दी पर बैठाया. श्री लीलाशाह गद्दी पर तो
बैठे पर उनका मन कहीं और जाने की सोच रहा था। आखिर में उन्होंने अपनी चाची
को कहा कि मै परमात्मा की खोज करके उन्हें पाना चाहता हूँ. चाची के रोने
का उनपर कोई प्रभाव नही पड़ा. आखिरकार चाची ने एक वचन लिया कि अंत समय मे
मेरी अर्थी को कन्धा जरुर देना. संत श्री लीलाशाह जी टंडो मुहम्मद खान मे
आकर अपने बहनोई के भाई श्री आसनदास के साथ रहने लगे, वहां उन्होंने
नारायणदास के मन्दिर मे हिन्दी सीखना शुरू किया। हिन्दी का ज्ञान प्राप्त
करने के बाद श्री लीलाशाह जी ने वेदांत ग्रंथो का अभ्यास शुरू किया। अंत मे
श्री लीलाशाह जी ने लोक लाज छोड़कर सन्यास ग्रहण किया, उस समय उनकी आयु १२
वर्ष की थी। फ़िर श्री लीलाशाह जी टंडो मुहम्मद खान छोड़कर टंडो जान
मुहम्मद खान मे आ गए। वहां पर उन्हें सदगुरु श्री केशवानंद जी मिले. इस
प्रकार श्री केशवानंद जी के आश्रम मे रहकर श्री लीलाशाह जी ने वेदांत के
ग्रंथो का अभ्यास किया, आश्रम और गुरु की सेवा भी साथ साथ करते रहे. कभी
कभी अत्यधिक सेवा के कारन श्री लीलाशाह जी को शास्त्र कंठस्थ करने का समय न
मिलता तो गुरुदेव कान पकड़कर इतने जोर से थप्पड़ मारते कि गाल पर दो तीन
घंटे तक उँगलियों के निशान मोजूद रहते थे। श्री लीलाशाह जी का तप और
वैराग्य परिपक्व हुवा, उनकी गुरु भक्ति फली, उन्हें बीस वर्ष के उमर मे ही
आत्म साक्षात्कार हो गया।
सेवा कार्य और रहन सहन
सर्व प्रथम तलहार (सिंध) में जाकर श्री लीलाशाह जी ने संत रतन भगत के आश्रम
में एक कुवां खुदवाया. वहां दुसरे साधकों के साथ वे भी एक मजदूर की भांति
कार्य करते थे। वहीं उन्होंने एक गुफा बनवाई थी। लंबे समय तक वे उसकी गुफा
में रहते, प्रात: काल गुफा में से निकलकर शुद्ध हवा लेने के लिए जंगल की ओर
जाते. रोज प्रेमी भक्तो, श्रधालुओं, को सत्संग देते. दिन में एक ही बार
भोजन लेते. मौज आ जाती तो अलग अलग गांवों और शहरों में जाकर भी लोक सेवा
करते और सुबह शाम सत्संग देते. गर्मी के दिनों में आबू, हरिद्वार, हृषिकेश
अथवा उत्तरकाशी में जाकर रहते. संत श्री लीलाशाह जी ने अपनी चाची को वचन
दिया था कि मै आपके अन्तिम समय मे आपके पास रहूँगा. अपने वचन को पुरा करने
के लिए वे तलहार (सिंध) मे गए जहाँ उनकी चाची की तबियत ख़राब थी। संत के
चाची के पास पहुचने के ठीक दुसरे दिन चाची ने प्राण त्याग दिए. पूज्य संत
श्री लीलाशाह जी ने १२ दिन रहकर चाची की सभी अन्तिम क्रियाओ को पुरा कर
अपना वचन पुरा किया। उनका रहन सहन एकदम सादा था। जहाँ भी जाते तो एकांत
स्थल ही रहने या आराम करने के लिए चुनते थे। उनका दिल कोमल और धीरज वाला
था। वाणी पर खूब सयम था। वे सादगी, सयम, सदाचार और सत्य के सच्चे प्रेमी
थे। सिंध के दक्षिणी भाग लाड़ मे उन्होंने देखा कि वहां के लोग व्यवाहरिक
तौर पर काफी पीछे हैं। वहां उन्होंने छोटे बड़े सभी को स्वास्थ्य सुधारने
और व्यायाम करने के लिए प्रोत्साहित किया, इसके अलावा सत्संग देकर लोगो को
परमात्म मार्ग पर चलने के लिए भी प्रोत्साहित किया। उन्होंने
विद्यार्थियों, नव युवकों, बहनों, माताओं और बड़ों को, सभी को, राष्ट्रभाषा
हिन्दी सिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उनकी प्रेरणा से सिंध मे टंडो
मुहम्मद खान, संजोरी, मातली, तलहार, बदिन, शाहपुर आदि कई गावों मे कन्या
विद्यालय खुल गए, जिनमे मुख्या भाषा हिन्दी थी। पूज्य श्री बापू जहाँ जहाँ
जाते वहां वहां खादी और स्वदेशी चीजों का उपयोग करने का आग्रह करते. लोगों
को सदा जीवन जीने और फैशन से दूर रहने की सलाह दी. लाड़ (सिंध) मे शराब और
कबाब का जो रिवाज पड़ गया था, उसे बंद करने के लिए उन्होंने खूब मेहनत की.
इसके अलावा बाल विवाह प्रथा भी बंद करवाई. लाड़ मे हरिजनों के स्थिती
दयाजनक थी। वे ख़ुद हरिजनों की बस्ती मे जाकर उन्हें स्वास्थ्य का लाभ
बतातें, सफाई से रहना सिखाते, बच्चों को स्कूल मे पड़ने के लिए प्रोत्साहित
करते, लोगो को समझाते कि तुम हिंदू हो, अंडे मांस और शराब का उपयोग बंद
करो. उन्होंने हरिजन बच्चों को पढाने के लिए एक बहन को भी रखा जो उन लोगों
को बस्ती मे जाकर शिक्षा का प्रसार करती थी। पूज्य श्री लीलाशाह जी ख़ुद ही
बच्चो को किताबे, कॉपियाँ देते थे। अपनी कुटिया के कुवें से पानी भरने
देते, दुसरो को भी सलाह देते के उंच नीच के भेद को छोड़कर हरिजनों को किसी
भी कुवें से पानी भरने दो. एक बार बिहार मे अकाल पड़ा तब पूज्य श्री ने
भक्तो के पास से पैसे इकठ्ठे कर अनाज और जीवनोपयोगी वस्तुओं को हैदराबाद
(सिंध) से भेजने की व्यवस्था की. इसी प्रकार जब बंगाल मे सन १९४९ मे भीषण
अकाल पड़ा तब फ़िर पूज्य श्री ने दस हजार मन अनाज एकत्रित कर वहां भेजा.
पूज्य श्री लीलाशाह जी जब हरिद्वार मे रहते थे तब बारिश के दिनों मे
अत्यधिक बरसात होने की वजह से गंगा के जोरदार बहाव को पार करके आने जाने मे
गांव के लोगो को काफी परेशानी उठानी पड़ती थी। पूज्य श्री लीलाशाह जी के
करुनामय ह्रदय से यह कष्ट देखा नही गया। वे पुनः सिंध गए, वहां से आवश्यक
धन राशी और एक रिटायर्ड इंजीनीयर को साथ लेकर हरिद्वार आए; हरिद्वार तथा
उत्तरकाशी मे तीन पुल बनवाए.
साहित्य सेवा
पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज को यह विश्वास था कि सत्साहित्य, धर्म और
नीति के शास्त्र ही मानव जीवन का निर्माण करने वाले एवं जीवन को उन्नति के
पथ पर ले जाने वाले है। उन्होंने सिन्धी साहित्य की खूब सेवा की. उन्होंने
छोटी बड़ी पुस्तके सिन्धी भाषा में लिखवाई, इसके अलावा दूसरी वेदांती
पुस्तकों का भी सिन्धी भाषा में अनुवाद करवाकर छपवाना सुरु किया।
नीतिशास्त्र की प्रसिद्ध पुस्तक "सारसुक्तावली", "स्वामी रामतीर्थ का जीवन
चरित्र", "सफलता की कुंजी" आदि को गुरुमुखी भाषा में छपवाई. प्रोफेसर
गोकुलदास भागिया के साथ "वेदांत प्रचार मंडल" की स्थापना की, जिसके द्वारा
एक उच्च कोटि की मासिक पत्रिका "तत्वज्ञान" को प्रकाशित करना सुरु किया।
पूज्य श्री लीलाशाह जी की प्रेरणा से अजमेर से सिन्धी भाषा में "आत्मदर्शन"
नामक मासिक भी प्रकाशित होंगे लगा. पूज्य श्री लीलाशाह महाराज उच्च कोटि
के कवि और चिन्तक भी थे। उन्होंने सिन्धी भाषा में कई कविताएँ लिखी, जिनका
नाम "लीलाशाह शतक" रखा. गर्मियों के दिनों में जब पूज्य श्री नैनीताल के
जंगलो में एकांतवास के लिए जाते तब कई पुस्तके एक गठरी बनाकर सिर पर रखकर
चलते. नैनीताल के पर्वतों से उतरकर आस पास के पर्वतीय प्रदेशों में स्थित
अलग अलग गांव में जाते, वहां पर लोगो को सत्संग सुनाते, प्रसाद बांटते एवं
योग्य लोगों को पड़ने के लिए पुस्तकें देते और अगले सप्ताह फ़िर उन लोगो से
पुस्तके लेकर दुसरे गांव के लोगो को दे देते.
समाज सेवा
५ अगस्त १९४७ को भारत स्वतंत्र हुवा. पाकिस्तान के हिन्दुओ का कत्ले आम हो
रहा था। उनकी जमीन जायदाद, इज्जत और धर्म का हनन हो रहा था। वे सभी भारत आ
गए। इन लोगो के लिए भारत सरकार ने अलग अलग जगहों पर कैंप बना दिए. भारत में
भागकर आए हिन्दुओं के पास रहने के लिए मकान नही, खाने के लिए अन्न नही,
कमाने के लिए नौकरी, धंधा नही... ऐसी अवस्था में पूज्य श्री लीलाशाह जी रात
दिन लोकसेवा सुरु कर दी. दुखियों के दुःख दूर करने, उन्हें नए सिरे से
जिन्दगी सुरु करने के लिए प्रोत्साहित करते और उन्हें जीवनोपयोगी वस्तुओं
की आपूर्ति करते रहते. कई जगहों पर बच्चों के लिए स्कूल बनवाए. आज
लोग भारत एवं विदेशों के कोने कोने में रहकर मान प्रतिष्ठा एवं समाज में
उच्च स्थान रखते हैं। यह पुरा गौरव पूज्य श्री लीलाशाह महाराज को ही जाता
है, ऐसा कहने में जरा भी अतिशयोक्ति नही है। पूज्य श्री लीलाशाह जी महाराज
को हमेशा यही फिक्र रहती कि अपने देशवाशियों को किस प्रकार सुखी एवं उन्नत
बनाऊ? इसके लिए उन्होंने बहुत मेहनत करके मकानों के साथ स्कूल, रात्रि
पाठशालाएं, पुस्तकालय एवं व्ययामशालाये स्थापित करवाई, जहाँ जहाँ वे जाते
वहां वहां कसरत सिखातें. शरीर स्वस्थ रखने के लिए यौगिक क्रियाओ के साथ
प्राकुतिक उपचार बताते. वे दहेज़ प्रथा, सती प्रथा आदि समाज की कुरीतियों
के सख्त विरोधी थे। स्वामी जी की प्रेरणा से "अखिल भारतीय सिन्धी समाज सेवा
सम्मलेन" की स्थापना हुई. पूज्य श्री की प्रेरणा से ब्रह्म क्षत्रिय समाज
में जो कमियां थी वो धीरे धीरे कम होने लगी, पंचायतों में एकता आने लगी,
सभी पंचायतों ने एकत्रित होकर "अखिल भारतीय ब्रह्म क्षत्रिय सम्मलेन" की
स्थापना की. ब्रह्म क्षत्रिय समाज के लोग पूज्य श्री को अवतारी पुरूष के
रूप में पूजने लगे. उनकी प्रेरणा से गरीब ब्रह्म क्षत्रियों के लिए शिक्षा
की व्यवस्था हो सकी, योग्य विद्यार्थियों को छात्र वृत्ति, विधवा एवं
गरीबों को आर्थिक मदद एवं बेरोजगारों के लिए नौकरी धंदे की व्यवस्था की.
शरीर का अंत
पूज्य श्री लीलाशाह महाराज ने अपने कार्यक्षेत्र में कभी भी भौगोलिक सीमाओं
की ओर नहीं देखा. उन्होंने तो जातिभेद से पार होकर, मानव जीवन का मूल्य
समझाने, स्वास्थ्य को संतुलित करने के लिए योग का प्रचार, आध्यात्मिक ज्ञान
देने के लिए सत्संग का प्रचार किया। ९३ वर्ष की उम्र में भी वे कर्मशील
बने रहे. इस उम्र में भी वे अपने सभी काम स्वयं करते. योग के सभी आसन और
क्रियाएं भी करते. ४ नवम्बर १९७३ को सुबह ७:२० पर स्वामी जी ने अपने देह को
त्याग कर परम लोक की ओर प्रस्थान किया
Very inspiring and amazing story of such a great saint
ReplyDeleteThank you for sharing the full information regarding our *GURUDEV*
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