Know 10 Some Basic Yogasana ( जानिए ऐसे १० योगाशन जो आपके जीवन - संतुलन के लिए अत्यंत आवश्यक हे )
साधारण मनुष्य अन्नमय , प्राणमय और मनोमय कोष में जीता हे . जीवन की तमाम सुशुप्त शक्तियां नहीं जगाकर जीवन व्यर्थ खोता हे . इन शक्तिओ को जगाने में आपको आशन खूब सहायरूप बनेगे . आशान के अभ्याश से तन तंदुरस्त , मन प्रसन्न और बुध्धि तीक्ष्ण बनेगी . जीवन के हर क्षेत्र में सुखद स्वप्न साकार करने की कुंजी आपके आंतर मन में सुपी हुई पड़ी हे . आपका अदभुत सामर्थ्य प्रकट करने के लिये ऋिषयों ने समाधी से समप्राप्त इन आसनों का अवलोकन किया हे .
1. सिद्धासन : पद्मासन के बाद सिद्धासन का स्थान आता है। अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करने वाला होने के कारण इसका नाम सिद्धासन पड़ा है। सिद्ध योगियों का यह प्रिय आसन है। यमों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, नियमों में शौच श्रेष्ठ है वैसे आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है।
ध्यान :आज्ञाचक्र में और श्वास, दीर्घ, स्वाभाविक .
विधिः आसन पर बैठकर पैर खुले छोड़ दें। अब बायें पैर की एड़ी को गुदा और जननेन्द्रिय के बीच रखें। दाहिने पैर की एड़ी को जननेन्द्रिय के ऊपर इस प्रकार रखें जिससे जननेन्द्रिय और अण्डकोष के ऊपर दबाव न पड़े। पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं। दोनों पैरों के तलुवे जंघा के मध्य भाग में रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे इस प्रकार दोनों हाथ एक दूसरे के ऊपर गोद में रखें। अथवा दोनों हाथों को दोनो घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रखें। आँखें खुली अथवा बन्द रखें। श्वासोच्छोवास आराम से स्वाभाविक चलने दें। भ्रूमध्य में, आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करें। पाँच मिनट तक इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान की उच्च कक्षा आने पर शरीर पर से मन की पकड़ छूट जाती है।
लाभः सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है। प्राणतत्त्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। फलतः मन को एकाग्र करना सरल बनता है।
पाचनक्रिया नियमित होती है। श्वास के रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण, अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं। मंदाग्नि, मरोड़ा, संग्रहणी, वातविकार, क्षय, दमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है। पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं।
2. पद्मासन या कमलासन : इस आसन में पैरों का आधार पद्म अर्थात कमल जैसा बनने से इसको पद्मासन या कमलासन कहा जाता है .
ध्यान : आज्ञाचक्र में अथवा अनाहत चक्र में। श्वास रेचक, कुम्भक, दीर्घ, स्वाभाविक।
विधिः बिछे हुए आसन के ऊपर स्वस्थ होकर बैठें। रेचक करते करते दाहिने पैर को मोड़कर बाँई जंघा पर रखें। बायें पैर को मोड़कर दाहिनी जंघा पर रखें। अथवा पहले बायाँ पैर और बाद में दाहिना पैर भी रख सकते हैं। पैर के तलुवे ऊपर की ओर और एड़ी नाभि के नीचे रहे। घुटने ज़मीन से लगे रहें। सिर, गरदन, छाती, मेरूदण्ड आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ रहे। दोनों हाथ घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रहे। (अँगूठे को तर्जनी अँगुली के नाखून से लगाकर शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रखने से ज्ञानमुद्रा बनती है।) अथवा बायें हाथ को गोद में रखें। हथेली ऊपर की और रहे। उसके ऊपर उसी प्रकार दाहिना हाथ रखें। दोनों हाथ की अँगुलियाँ परस्पर लगी रहेंगी। दोनों हाथों को मुट्ठी बाँधकर घुटनों पर भी रख सकते हैं।
रेचक पूरा होने के बाद कुम्भक करें। प्रारंभ में पैर जंघाओँ के ऊपर पैर न रख सकें तो एक ही पैर रखें। पैर में झनझनाहट हो, क्लेश हो तो भी निराश न होकर अभ्यास चालू रखें। अशक्त या रोगी को चाहिए कि वह ज़बरदस्ती पद्मासन में न बैठे। पद्मासन सशक्त एवं निरोगी के लिए है। हर तीसरे दिन समय की अवधि एक मिनट बढ़ाकर एक घण्टे तक पहुँचना चाहिए।
दृष्टि नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में स्थिर करें। आँखें बंद, खुली या अर्ध खुली भी रख सकते हैं। शरीर सीधा और स्थिर रखें। दृष्टि को एकाग्र बनायें।
भावना करें कि मूलाधार चक्र में छुपी हुई शक्ति का भण्डार खुल रहा है। निम्न केन्द्र में स्थित चेतना तेज और औज़ के रूप में बदलकर ऊपर की ओर आ रही है। अथवा, अनाहत चक्र (हृदय) में चित्त एकाग्र करके भावना करें कि हृदयरूपी कमल में से सुगन्ध की धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं। समग्र शरीर इन धाराओं से सुगन्धित हो रहा है।
लाभः प्राणायाम के अभ्यासपूर्वक यह आसन करने से नाड़ीतंत्र शुद्ध होकर आसन सिद्ध होता है। विशुद्ध नाड़ीतंत्र वाले योगी के विशुद्ध शरीर में रोग की छाया तक नहीं रह सकती और वह स्वेच्छा से शरीर का त्याग कर सकता है।
पद्मासन में बैठने से शरीर की ऐसी स्थिति बनती है जिससे श्वसन तंत्र, ज्ञानतंत्र और रक्ताभिसरणतंत्र सुव्यवस्थित ढंग के कार्य कर सकते हैं। फलतः जीवनशक्ति का विकास होता है। पद्मासन का अभ्यास करने वाले साधक के जीवन में एक विशेष प्रकार की आभा प्रकट होती है। इस आसन के द्वारा योगी, संत, महापुरूष महान हो गये हैं।
3. मयूरासन : इस आसन में मयूर अर्थात् मोर की आकृति बनती है इससे इसे मयूरासन कहा जाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास बाह्य कुम्भक ।
विधि : जमीन पर घुटने टिकाकर बैठ जायें । दोनों हाथ की हथेलियों को जमीन पर इस प्रकार रखें कि सब अंगुलियाँ पैर की दिशा में हों और परस्पर लगी रहें । दोनों कुहनियों को मोडकर पेट के कोमल भाग पर, नाभि के इर्दगिर्द रखें । अब आगे झुककर दोनों पैर को पीछ की ओर लम्बे करें । श्वास बाहर निकालकर दोनों पैर को जमीन से ऊपर उठायें और सिर का भाग नीचे झुकायें । इस प्रकार पूरा शरीर जमीन के बराबर समानान्तर रहे ऐसी स्थिति बनायें । संपूर्ण शरीर का वजन केवल दो हथेलियों पर ही रहेगा । जितना समय रह सकें उतना समय इस स्थिति में रहकर फिर मूल स्थिति में आ जायें । इस प्रकार दो-तीन बार करें ।
लाभ : मयूरासन करने से ब्रह्मचर्य-पालन में सहायता मिलती है। पाचन तन्त्र के अंगों की ओर रक्त का प्रवाह अधिक बढने से वे अंग बलवान और कार्यशील बनते हैं । पेट के भीतर के भागों में दबाव पडने से उनकी शक्ति भी बढती है । उदर के अंगों की शिथिलता और मन्दाग्नि दूर करने में मयूरासन बहुत उपयोगी है ।
4. पादपश्चिमोत्तानासन : यह आसन करना कठिन है इसलिए इसे उग्रासन कहा जाता है । उग्र का अर्थ है शिव । भगवान शिव संहारकत्र्ता हैं अतः उग्र या भयंकर हैं । शिवसंहिता में भगवान शिव ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा है : ‘‘यह आसन सर्वश्रेष्ठ आसन है । इसको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखें । सिर्फ अधिकारियों को ही इसका रहस्य बतायें ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास प्रथम स्थिति में पूरक और दूसरी स्थिति में रेचक और फिर बहिर्कुम्भक ।
विधि : बिछे हुए आसन पर बैठ जायें । दोनों पैरों को लम्बे फैला दें। दोनों पैरों की जंघा, घुटने, पंजे परस्पर मिले रहें और जमीन के साथ लगे रहें । पैरों की अंगुलियाँ घुटनों की तरफ झुकी हुई रहें । अब दोनों हाथ लम्बे करें । दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठे से दाहिने पैर का अंगूठा और बायें हाथ की तर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकडें । अब रेचक करते-करते नीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें । ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कुहनियाँ घुटनों के पास जमीन से लगें । रेचक पूरा होने पर कुम्भक करें । दृष्टि एवं चित्तवृत्ति को मणिपुर चक्र में स्थापित करें। प्रारम्भ में आधा मिनट करके क्रमशः १५ मिनट तक यह आसन करने का अभ्यास बढाना चाहिए । प्रथम दो-चार दिन कठिन लगेगा लेकिन अभ्यास हो जाने पर यह आसन सरल हो जायेगा ।
लाभ : पादपश्चिमोत्तानासन के सम्यक् अभ्यास से सुषुम्ना का मुख खुल जाता है और प्राण मेरुदण्ड के मार्ग में गमन करता है, फलतः बिन्दु को जीत सकते हैं । बिन्दु को जीते बिना न समाधि सिद्ध होती है न वायु स्थिर होता है न चित्त शान्त होता है । जो स्त्री-पुरुष कामविकार से अत्यंत पीिडत हों उन्हें इस आसन का अभ्यास करना चाहिए । इससे शारीरिक एवं मानसिक विकार दब जाते हैं । उदर, छाती और मेरुदण्ड को उत्तम कसरत मिलती है अतः वे अधिक कार्यक्षम बनते हैं । हाथ, पैर तथा अन्य अंगों के सन्धिस्थान मजबूत बनते हैं । शरीर के सब तन्त्र बराबर कार्यशील होते हैं । रोग मात्र का नाश होकर स्वास्थ्य का साम्राज्य स्थापित होता है । इस आसन के अभ्यास से मन्दाग्नि, मलावरोध, अजीर्ण, उदररोग, कृमिविकार, सर्दी, खाँसी, वातविकार, कमर का दर्द, हिचकी, कोढ, मूत्ररोग, मधुप्रमेह, पैर के रोग, स्वप्नदोष, वीर्यविकार, रक्तविकार, एपेन्डीसाइटिस, अण्डवृद्धि, पाण्डुरोग, अनिद्रा, दमा, खट्टी डकारें आना, ज्ञानतन्तु की दुर्बलता, बवासीर, नल की सूजन, गर्भाशय के रोग, अनियमित तथा कष्टदायक मासिक, ब्नध्यत्व, प्रदर, नपुंसकता, रक्तपित्त, सिरोवेदना, बौनापन आदि अनेक रोग दूर होते हैं .
5. चक्रासन : इस आसन में शरीर की स्थिति चक्र जैसी बनती है । अतः चक्रासन कहलाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास दीर्घ, स्वाभाविक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए आसन पर चित्त होकर लेट जायें । घुटनों से पैर मोडकर ऊपर उठायें । पैर के तलुवे जमीन से लगे रहें । दो पैरों के बीच करीब डेढ फिट का अन्तर रखें । दोनों हाथ मस्तक की तरफ उठाकर पीछे की ओर दोनों हथेलियों को जमीन पर जमायें । दोनों हथेलियों के बीच भी करीब डेढ फिट का अन्तर रखें । अब हाथ और पैर के बल से पूरे शरीर को कमर से मोडकर ऊपर उठायें । हाथ को धीरे धीरे पैर की ओर ले जाकर सम्पूर्ण शरीर का आकार वृत्त या चक्र जैसा बनायें । आँखें बन्द रखें । श्वास की गति स्वाभाविक चलने दें । चित्तवृत्ति मणिपुर चक्र (नाभि केन्द्र) में स्थिर करें । आँखें खुली भी रख सकते हैं। एक मिनट से पाँच मिनट तक अभ्यास बढा सकते हैं ।
लाभ : मेरुदण्ड तथा शरीर की समस्त नािडयों का शुद्धिकरण होकर यौगिक चक्र जागृत होते हैं । लकवा तथा शरीर की कमजोरियाँ दूर होती हैं । मस्तक, गर्दन, पीठ, पेट, कमर, हाथ, पैर, घुटने आदि सब अंग मजबूत बनते हैं । सन्धि-स्थानों में दर्द नहीं होता । पाचनशक्ति बढती है । पेट की अनावश्यक चरबी दूर होती है । शरीर तेजस्वी और फुर्तीला बनता है । विकारी विचार नष्ट होते हैं । स्वप्नदोष की बीमारी अलविदा होती है । चक्रासन के नियमित अभ्यास से वृद्धावस्था में भी कमर झुकती नहीं । शरीर सीधा तना हुआ रहता है ।
6. धनुरासन : इस आसन में शरीर की आकृति खींचे हुए धनुष जैसी बनती है अतः इसको धनुरासन कहा जाता है ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास नीचे की स्थिति में रेचक और ऊपर की स्थिति में पूरक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए कम्बल पर पेट के बल उल्टे होकर लेट जायें । दोनों पैर परस्पर मिले हुए रहें । अब दोनों पैरों को घुटनों से मोडें । दोनों हाथों को पीछे ले जाकर दोनों पैरों को टखनों से पकडें । रेचक करके हाथ से पकडे हुए पैरों को कसकर धीरे-धीरे खींचें । जितना हो सके उतना सिर को पीछे की ओर ले जाने की कोशिश करें । दृष्टि भी ऊपर एवं पीछे की ओर रहनी चाहिए । समग्र शरीर का बोझ केवल नाभिप्रदेश के ऊपर ही रहेगा । कमर से ऊपर का धड एवं कमर से नीचे पूरे पैर ऊपर की ओर मुडे हुए रहेंगे । कुम्भक करके इस स्थिति में टिके रहें । बाद में हाथ खोलकर पैर तथा सिर को मूल अवस्था में ले जायें और पूरक करें । प्रारंभ में पाँच सेकन्ड यह आसन करें । धीरे-धीरे समय बढाकर तीन मिनट या उससे भी अधिक समय इस आसन का अभ्यास करें । तीन-चार बार यह आसन करना चाहिए ।
लाभ : धनुरासन के अभ्यास से पेट की चरबी कम होती है । गैस दूर होती है । पेट के रोग नष्ट होते हैं । कब्ज में लाभ होता है । भूख खुलती है । छाती का दर्द दूर होता है । हृदय की धडकन दूर होकर हृदय मजबूत बनता है । गले के तमाम रोग नष्ट होते हैं । आवाज मधुर बनती है । श्वास की क्रिया व्यवस्थित चलती है । मुखाकृति सुन्दर बनती है । आँखों की रोशनी बढती है और तमाम रोग दूर होते हैं । हाथ-पैर में होनेवाला कंपन रुकता है । शरीर का सौन्दर्य बढता है । पेट के स्नायुओं में qखचाव आने से पेट को अच्छा लाभ होता है । आँतों पर खूब दबाव पडने से पेट के अंगों पर भी दबाव पडता है । फलतः आँतों में पाचकरस आने लगता है इससे जठराग्नि तेज होती है, पाचनशक्ति बढती है । वायुरोग नष्ट होता है । पेट के क्षेत्र में रक्त का संचार अधिक होता है । धनुरासन में भुजंगासन और शलभासन का समावेश हो जाने के कारण इन दोनों आसनों के लाभ मिलते हैं । स्त्रियों के लिए यह आसन खूब लाभकारक है । इससे मासिक धर्म के विकार, गर्भाशय के तमाम रोग दूर होते हैं .
7. पवनमुक्तासन : शरीर में स्थित पवन (वायु) यह आसन करने से मुक्त होता है इससे इसको पवनमुक्तासन कहा जाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास पहले पूरक फिर कुम्भक और रेचक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए आसन पर चित्त होकर लेट जायें । पूरक करके फेफडों में श्वास भर लें । अब किसी भी एक पैर को घुटने से मोड दें । दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर उसके द्वारा मोडे हुए घुटनों को पकडकर पेट के साथ लगा दें । फिर सिर को ऊपर उठाकर मोडे हुए घुटनों पर नाक लगायें । दूसरा पैर जमीन पर सीधा रहे । इस क्रिया के दौरान श्वास को रोककर कुम्भक चालू रखें । सिर और मोडा हुआ पैर भूमि पर पूर्ववत् रखने के बाद ही रेचक करें । दोनों पैरों को बारी बारी से मोडकर यह क्रिया करें । दोनों पैर एक साथ मोडकर भी यह आसन हो सकता है । लाभ : पवनमुक्तासन के नियमित अभ्यास से पेट की चरबी कम होती है । पेट की वायु नष्ट होकर पेट विकार रहित बनता है । कब्ज दूर होता है । पेट में अफरा हो तो इस आसन से लाभ होता है । प्रातःकाल में शौचक्रिया ठीक से न होती हो तो थोडा पानी पीकर यह आसन १५-२० बार करने से शौच खुलकर होगा ।
लाभ : इस आसन से स्मरणशक्ति बढती है । बौद्धिक कार्य करनेवाले डॉक्टर, वकील, साहित्यकार, विद्यार्थी तथा बैठकर प्रवृत्ति करनेवाले मुनीम, व्यापारी आदि लोगों को नियमित रूप से पवनमुक्तासन करना चाहिए ।
8. सुप्तवज्रासन : सुप्तवज्रासन , ध्यान : विशुद्धाख्य चक्र में । श्वास दीर्घ, सामान्य ।
विधि : वज्रासन में बैठने के बाद चित्त होकर पीछे की ओर भूमि पर लेट जायें । दोनों जंघाएँ परस्पर मिली रहें । अब रेचक करते करते
बायें हाथ का खुला पंजा दाहिने कन्धे के नीचे और दाहिने हाथ का खुला पंजा बायें कन्धे के नीचे इस प्रकार रखें कि मस्तक दोनों हाथ के क्रास के ऊपर आये । रेचक पूरा होने पर त्रिबन्ध करें । दृष्टि मूलाधार चक्र की दिशा में और चित्तवृत्ति मूलाधार चक्र में स्थापित करें ।
लाभ : यह आसन करने में श्रम बहुत कम है और लाभ अधिक होता है । इसके अभ्यास से सुषुम्ना का मार्ग अत्यंत सरल होता है । कुण्डलिनी शक्ति सरलता से ऊध्र्वगमन कर सकती है । इस आसन में ध्यान करने से मेरुदण्ड को सीधा रखने का श्रम नहीं करना पडता और मेरुदण्ड को आराम मिलता है । उसकी कार्यशक्ति प्रबल बनती है । इस आसन का अभ्यास करने से प्रायः तमाम अंतःस्रावी ग्रन्थियों को, जैसे शीर्षस्थ ग्रन्थि, कण्ठस्थ ग्रन्थि, मूत्रपिण्ड की ग्रन्थि, ऊध्र्वपिण्ड तथा पुरुषार्थग्रन्थि आदि को पुष्टि मिलती है । फलतः व्यक्ति का भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास सरल हो जाता है । तन-मन का स्वास्थ्य प्रभावशाली बनता है । जठराग्नि प्रदीप्त होती है । मलावरोध की पीडा दूर होती है । धातुक्षय, स्वप्नदोष, पक्षाघात, पथरी, बहरा होना, तोतला होना, आँखों की दुर्बलता, गले के टॉन्सिल, श्वासनलिका की सूजन, क्षय, दमा, स्मरणशक्ति की दुर्बलता आदि रोग दूर होते हैं ।
9. योगमुद्रासन : योगाभ्यास में यह मुद्रा अति महत्त्वपूर्ण है इससे इसका नाम योगमुद्रासन रखा गया है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास रेचक, कुम्भक और पूरक ।
विधि : पद्मासन लगाकर दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जायें । बायें हाथ से दाहिने हाथ की कलाई पकडें । दोनों हाथों को खींचकर कमर तथा रीढ के मिलन स्थान पर ले जायें । अब रेचक करके कुम्भक करें । श्वास को रोककर शरीर को आगे झुकाकर भूमि पर टेक दें । फिर धीरे धीरे सिर को उठाकर शरीर को पुनः सीधा कर दें और पूरक करें। प्रारंभ में यह आसन कठिन लगे तो सुखासन या सिद्धासन में बैठकर करें । पूर्ण लाभ तो पद्मासन में बैठकर करने से ही होता है ।
पाचनतन्त्र के अंगों की स्थानभ्रष्टता ठीक करने के लिए यदि यह आसन करते हों तो केवल पाँच-दस सेकण्ड तक ही करें, एक बैठक में तीन से पाँच बार । सामान्यतया यह आसन तीन मिनट तक करना चाहिए । आध्यात्मिक उद्देश्य से योगमुद्रासन करते हों तो समय की अवधि रुचि और शक्ति के अनुसार बढायें ।
लाभ : योगमुद्रासन भली प्रकार सिद्ध होता है तब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है । पेट के गैस की बीमारी दूर होती है । पेट एवं आँतों की सब शिकायतें दूर होती हैं । कलेजा, फेफडे, आदि यथा स्थान रहते हैं । हृदय मजबूत बनता है । रक्त के विकार दूर होते हैं । कुष्ठ और यौनविकार नष्ट होते हैं । पेट बडा हो तो अन्दर दब जाता है। शरीर मजबूत बनता है । मानसिक शक्ति बढती है । योगमुद्रासन से उदरपटल सशक्त बनता है । पेट के अंगों को अपने स्थान में टिके रहने में सहायता मिलती है । नाडीतन्त्र और खास करके कमर के नाडी-मण्डल को बल मिलता है ।
इस आसन में सामान्यतया जहाँ एिडयाँ लगती हैं वहाँ कब्ज के अंग होते हैं । उन पर दबाव पडने से आँतों में उत्तेजना आती है । पुराना कब्ज दूर होता है । अंगों की स्थानभ्रष्टता के कारण होनेवाला कब्ज भी, अंग अपने स्थान में पुनः यथावत् स्थित हो जाने से नष्ट हो जाता है । धातु की दुर्बलता में योगमुद्रासन खूब लाभदायक है
10. वज्रासन : वज्रासन का अर्थ है बलवान स्थिति । पाचनशक्ति, वीर्यशक्ति तथा स्नायुशक्ति देनेवाला होने से यह आसन वज्रासन कहलाता है ।
ध्यान : मूलाधार चक्र में और श्वास दीर्घ ।
विधि : बिछे हुए आसन पर दोनों पैरों को घुटनों से मोडकर दोनोें एिडयों पर बैठ जायें । पैर को दोनों अँगूठे परस्पर लगे रहें । पैर के तलवों के ऊपर नितम्ब रहे । कमर और पीठ बिल्कुल सीधी रहे, दोनों हाथ को कुहनियों से मोडे बिना घुटने पर रख दें । हथेलियाँ नीचे की ओर रहे । दृष्टि सामने स्थिर कर दें । पाँच मिनट से लेकर आधे घण्टे तक वज्रासन का अभ्यास कर सकते हैं । वज्रासन लगाकर पीछे की ओर भूमि पर लेट जाने से सुप्त वज्रासन होता है ।
लाभ : वज्रासन के अभ्यास से शरीर का मध्यभाग सीधा रहता है । श्वास की गति मन्द पडने से वायु बढती है । आँखों की ज्योति तेज होती है । वज्रनाडी अर्थात् वीर्यधारा नाडी मजबूत बनती है । वीर्य की ऊध्र्वगति होने से शरीर वज्र जैसा बनता है । लम्बे समय तक सरलता से यह आसन कर सकते हैं । इससे मन की चंचलता दूर होकर व्यक्ति स्थिर बुद्धिवाला बनता है । शरीर में रक्ताभिसरण ठीक से होकर शरीर निरोगी एवं सुन्दर बनता है । भोजन के बाद इस आसन में बैठने से पाचनशक्ति तेज होती है, भोजन जल्दी हजम होता है । पेट की वायु का नाश होता है । कब्ज दूर होकर पेट के तमाम रोग नष्ट होते हैं । पाण्डुरोग से मुक्ति मिलती है । रीढ, कमर, जाँघ, घुटने और पैरों में शक्ति बढती है । कमर और पैर का वायु रोग दूर होता है । स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है । स्त्रियों के मासिक धर्म की अनियमितता जैसे रोग दूर होते हैं । शुक्रदोष, वीर्यदोष, घुटनों का दर्द आदि का नाश होता है । स्नायु पुष्ट होते हैं । स्फूर्ति बढाने के लिए एवं मानसिक निराशा दूर करने के लिए यह आसन उपयोगी है । ध्यान के लिए भी यह आसन उत्तम है । इसके अभ्यास से शारीरिक स्फूर्ति एवं मानसिक प्रसन्नता प्रकट होती है । दिन-प्रतिदिन शक्ति का संचय होता है इसलिए शारीरिक बल में खूब वृद्धि होती है । काग का गिरना अर्थात् गले के टॉन्सिल्स, हड्डियों के पोल आदि स्थानों में उत्पन्न होनेवाले श्वेतकण की संख्या में वृद्धि होने से आरोग्य का साम्राज्य स्थापित होता है । फिर व्यक्ति बुखार से सिरदर्द से, कब्ज से, मंदाग्नि या अजीर्ण जैसे छोटे-मोटे किसी भी रोग से पीिडत नहीं रहता, क्योंकि रोग आरोग्य के साम्राज्य में प्रविष्ट होने का साहस ही नहीं कर पाते ।
1. सिद्धासन : पद्मासन के बाद सिद्धासन का स्थान आता है। अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करने वाला होने के कारण इसका नाम सिद्धासन पड़ा है। सिद्ध योगियों का यह प्रिय आसन है। यमों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, नियमों में शौच श्रेष्ठ है वैसे आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है।
ध्यान :आज्ञाचक्र में और श्वास, दीर्घ, स्वाभाविक .
विधिः आसन पर बैठकर पैर खुले छोड़ दें। अब बायें पैर की एड़ी को गुदा और जननेन्द्रिय के बीच रखें। दाहिने पैर की एड़ी को जननेन्द्रिय के ऊपर इस प्रकार रखें जिससे जननेन्द्रिय और अण्डकोष के ऊपर दबाव न पड़े। पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं। दोनों पैरों के तलुवे जंघा के मध्य भाग में रहें। हथेली ऊपर की ओर रहे इस प्रकार दोनों हाथ एक दूसरे के ऊपर गोद में रखें। अथवा दोनों हाथों को दोनो घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रखें। आँखें खुली अथवा बन्द रखें। श्वासोच्छोवास आराम से स्वाभाविक चलने दें। भ्रूमध्य में, आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करें। पाँच मिनट तक इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान की उच्च कक्षा आने पर शरीर पर से मन की पकड़ छूट जाती है।
लाभः सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है। प्राणतत्त्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है। फलतः मन को एकाग्र करना सरल बनता है।
पाचनक्रिया नियमित होती है। श्वास के रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण, अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं। मंदाग्नि, मरोड़ा, संग्रहणी, वातविकार, क्षय, दमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है। पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं।
2. पद्मासन या कमलासन : इस आसन में पैरों का आधार पद्म अर्थात कमल जैसा बनने से इसको पद्मासन या कमलासन कहा जाता है .
ध्यान : आज्ञाचक्र में अथवा अनाहत चक्र में। श्वास रेचक, कुम्भक, दीर्घ, स्वाभाविक।
विधिः बिछे हुए आसन के ऊपर स्वस्थ होकर बैठें। रेचक करते करते दाहिने पैर को मोड़कर बाँई जंघा पर रखें। बायें पैर को मोड़कर दाहिनी जंघा पर रखें। अथवा पहले बायाँ पैर और बाद में दाहिना पैर भी रख सकते हैं। पैर के तलुवे ऊपर की ओर और एड़ी नाभि के नीचे रहे। घुटने ज़मीन से लगे रहें। सिर, गरदन, छाती, मेरूदण्ड आदि पूरा भाग सीधा और तना हुआ रहे। दोनों हाथ घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रहे। (अँगूठे को तर्जनी अँगुली के नाखून से लगाकर शेष तीन अँगुलियाँ सीधी रखने से ज्ञानमुद्रा बनती है।) अथवा बायें हाथ को गोद में रखें। हथेली ऊपर की और रहे। उसके ऊपर उसी प्रकार दाहिना हाथ रखें। दोनों हाथ की अँगुलियाँ परस्पर लगी रहेंगी। दोनों हाथों को मुट्ठी बाँधकर घुटनों पर भी रख सकते हैं।
रेचक पूरा होने के बाद कुम्भक करें। प्रारंभ में पैर जंघाओँ के ऊपर पैर न रख सकें तो एक ही पैर रखें। पैर में झनझनाहट हो, क्लेश हो तो भी निराश न होकर अभ्यास चालू रखें। अशक्त या रोगी को चाहिए कि वह ज़बरदस्ती पद्मासन में न बैठे। पद्मासन सशक्त एवं निरोगी के लिए है। हर तीसरे दिन समय की अवधि एक मिनट बढ़ाकर एक घण्टे तक पहुँचना चाहिए।
दृष्टि नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में स्थिर करें। आँखें बंद, खुली या अर्ध खुली भी रख सकते हैं। शरीर सीधा और स्थिर रखें। दृष्टि को एकाग्र बनायें।
भावना करें कि मूलाधार चक्र में छुपी हुई शक्ति का भण्डार खुल रहा है। निम्न केन्द्र में स्थित चेतना तेज और औज़ के रूप में बदलकर ऊपर की ओर आ रही है। अथवा, अनाहत चक्र (हृदय) में चित्त एकाग्र करके भावना करें कि हृदयरूपी कमल में से सुगन्ध की धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं। समग्र शरीर इन धाराओं से सुगन्धित हो रहा है।
लाभः प्राणायाम के अभ्यासपूर्वक यह आसन करने से नाड़ीतंत्र शुद्ध होकर आसन सिद्ध होता है। विशुद्ध नाड़ीतंत्र वाले योगी के विशुद्ध शरीर में रोग की छाया तक नहीं रह सकती और वह स्वेच्छा से शरीर का त्याग कर सकता है।
पद्मासन में बैठने से शरीर की ऐसी स्थिति बनती है जिससे श्वसन तंत्र, ज्ञानतंत्र और रक्ताभिसरणतंत्र सुव्यवस्थित ढंग के कार्य कर सकते हैं। फलतः जीवनशक्ति का विकास होता है। पद्मासन का अभ्यास करने वाले साधक के जीवन में एक विशेष प्रकार की आभा प्रकट होती है। इस आसन के द्वारा योगी, संत, महापुरूष महान हो गये हैं।
3. मयूरासन : इस आसन में मयूर अर्थात् मोर की आकृति बनती है इससे इसे मयूरासन कहा जाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास बाह्य कुम्भक ।
विधि : जमीन पर घुटने टिकाकर बैठ जायें । दोनों हाथ की हथेलियों को जमीन पर इस प्रकार रखें कि सब अंगुलियाँ पैर की दिशा में हों और परस्पर लगी रहें । दोनों कुहनियों को मोडकर पेट के कोमल भाग पर, नाभि के इर्दगिर्द रखें । अब आगे झुककर दोनों पैर को पीछ की ओर लम्बे करें । श्वास बाहर निकालकर दोनों पैर को जमीन से ऊपर उठायें और सिर का भाग नीचे झुकायें । इस प्रकार पूरा शरीर जमीन के बराबर समानान्तर रहे ऐसी स्थिति बनायें । संपूर्ण शरीर का वजन केवल दो हथेलियों पर ही रहेगा । जितना समय रह सकें उतना समय इस स्थिति में रहकर फिर मूल स्थिति में आ जायें । इस प्रकार दो-तीन बार करें ।
लाभ : मयूरासन करने से ब्रह्मचर्य-पालन में सहायता मिलती है। पाचन तन्त्र के अंगों की ओर रक्त का प्रवाह अधिक बढने से वे अंग बलवान और कार्यशील बनते हैं । पेट के भीतर के भागों में दबाव पडने से उनकी शक्ति भी बढती है । उदर के अंगों की शिथिलता और मन्दाग्नि दूर करने में मयूरासन बहुत उपयोगी है ।
4. पादपश्चिमोत्तानासन : यह आसन करना कठिन है इसलिए इसे उग्रासन कहा जाता है । उग्र का अर्थ है शिव । भगवान शिव संहारकत्र्ता हैं अतः उग्र या भयंकर हैं । शिवसंहिता में भगवान शिव ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा है : ‘‘यह आसन सर्वश्रेष्ठ आसन है । इसको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखें । सिर्फ अधिकारियों को ही इसका रहस्य बतायें ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास प्रथम स्थिति में पूरक और दूसरी स्थिति में रेचक और फिर बहिर्कुम्भक ।
विधि : बिछे हुए आसन पर बैठ जायें । दोनों पैरों को लम्बे फैला दें। दोनों पैरों की जंघा, घुटने, पंजे परस्पर मिले रहें और जमीन के साथ लगे रहें । पैरों की अंगुलियाँ घुटनों की तरफ झुकी हुई रहें । अब दोनों हाथ लम्बे करें । दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठे से दाहिने पैर का अंगूठा और बायें हाथ की तर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकडें । अब रेचक करते-करते नीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें । ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कुहनियाँ घुटनों के पास जमीन से लगें । रेचक पूरा होने पर कुम्भक करें । दृष्टि एवं चित्तवृत्ति को मणिपुर चक्र में स्थापित करें। प्रारम्भ में आधा मिनट करके क्रमशः १५ मिनट तक यह आसन करने का अभ्यास बढाना चाहिए । प्रथम दो-चार दिन कठिन लगेगा लेकिन अभ्यास हो जाने पर यह आसन सरल हो जायेगा ।
लाभ : पादपश्चिमोत्तानासन के सम्यक् अभ्यास से सुषुम्ना का मुख खुल जाता है और प्राण मेरुदण्ड के मार्ग में गमन करता है, फलतः बिन्दु को जीत सकते हैं । बिन्दु को जीते बिना न समाधि सिद्ध होती है न वायु स्थिर होता है न चित्त शान्त होता है । जो स्त्री-पुरुष कामविकार से अत्यंत पीिडत हों उन्हें इस आसन का अभ्यास करना चाहिए । इससे शारीरिक एवं मानसिक विकार दब जाते हैं । उदर, छाती और मेरुदण्ड को उत्तम कसरत मिलती है अतः वे अधिक कार्यक्षम बनते हैं । हाथ, पैर तथा अन्य अंगों के सन्धिस्थान मजबूत बनते हैं । शरीर के सब तन्त्र बराबर कार्यशील होते हैं । रोग मात्र का नाश होकर स्वास्थ्य का साम्राज्य स्थापित होता है । इस आसन के अभ्यास से मन्दाग्नि, मलावरोध, अजीर्ण, उदररोग, कृमिविकार, सर्दी, खाँसी, वातविकार, कमर का दर्द, हिचकी, कोढ, मूत्ररोग, मधुप्रमेह, पैर के रोग, स्वप्नदोष, वीर्यविकार, रक्तविकार, एपेन्डीसाइटिस, अण्डवृद्धि, पाण्डुरोग, अनिद्रा, दमा, खट्टी डकारें आना, ज्ञानतन्तु की दुर्बलता, बवासीर, नल की सूजन, गर्भाशय के रोग, अनियमित तथा कष्टदायक मासिक, ब्नध्यत्व, प्रदर, नपुंसकता, रक्तपित्त, सिरोवेदना, बौनापन आदि अनेक रोग दूर होते हैं .
5. चक्रासन : इस आसन में शरीर की स्थिति चक्र जैसी बनती है । अतः चक्रासन कहलाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास दीर्घ, स्वाभाविक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए आसन पर चित्त होकर लेट जायें । घुटनों से पैर मोडकर ऊपर उठायें । पैर के तलुवे जमीन से लगे रहें । दो पैरों के बीच करीब डेढ फिट का अन्तर रखें । दोनों हाथ मस्तक की तरफ उठाकर पीछे की ओर दोनों हथेलियों को जमीन पर जमायें । दोनों हथेलियों के बीच भी करीब डेढ फिट का अन्तर रखें । अब हाथ और पैर के बल से पूरे शरीर को कमर से मोडकर ऊपर उठायें । हाथ को धीरे धीरे पैर की ओर ले जाकर सम्पूर्ण शरीर का आकार वृत्त या चक्र जैसा बनायें । आँखें बन्द रखें । श्वास की गति स्वाभाविक चलने दें । चित्तवृत्ति मणिपुर चक्र (नाभि केन्द्र) में स्थिर करें । आँखें खुली भी रख सकते हैं। एक मिनट से पाँच मिनट तक अभ्यास बढा सकते हैं ।
लाभ : मेरुदण्ड तथा शरीर की समस्त नािडयों का शुद्धिकरण होकर यौगिक चक्र जागृत होते हैं । लकवा तथा शरीर की कमजोरियाँ दूर होती हैं । मस्तक, गर्दन, पीठ, पेट, कमर, हाथ, पैर, घुटने आदि सब अंग मजबूत बनते हैं । सन्धि-स्थानों में दर्द नहीं होता । पाचनशक्ति बढती है । पेट की अनावश्यक चरबी दूर होती है । शरीर तेजस्वी और फुर्तीला बनता है । विकारी विचार नष्ट होते हैं । स्वप्नदोष की बीमारी अलविदा होती है । चक्रासन के नियमित अभ्यास से वृद्धावस्था में भी कमर झुकती नहीं । शरीर सीधा तना हुआ रहता है ।
6. धनुरासन : इस आसन में शरीर की आकृति खींचे हुए धनुष जैसी बनती है अतः इसको धनुरासन कहा जाता है ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास नीचे की स्थिति में रेचक और ऊपर की स्थिति में पूरक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए कम्बल पर पेट के बल उल्टे होकर लेट जायें । दोनों पैर परस्पर मिले हुए रहें । अब दोनों पैरों को घुटनों से मोडें । दोनों हाथों को पीछे ले जाकर दोनों पैरों को टखनों से पकडें । रेचक करके हाथ से पकडे हुए पैरों को कसकर धीरे-धीरे खींचें । जितना हो सके उतना सिर को पीछे की ओर ले जाने की कोशिश करें । दृष्टि भी ऊपर एवं पीछे की ओर रहनी चाहिए । समग्र शरीर का बोझ केवल नाभिप्रदेश के ऊपर ही रहेगा । कमर से ऊपर का धड एवं कमर से नीचे पूरे पैर ऊपर की ओर मुडे हुए रहेंगे । कुम्भक करके इस स्थिति में टिके रहें । बाद में हाथ खोलकर पैर तथा सिर को मूल अवस्था में ले जायें और पूरक करें । प्रारंभ में पाँच सेकन्ड यह आसन करें । धीरे-धीरे समय बढाकर तीन मिनट या उससे भी अधिक समय इस आसन का अभ्यास करें । तीन-चार बार यह आसन करना चाहिए ।
लाभ : धनुरासन के अभ्यास से पेट की चरबी कम होती है । गैस दूर होती है । पेट के रोग नष्ट होते हैं । कब्ज में लाभ होता है । भूख खुलती है । छाती का दर्द दूर होता है । हृदय की धडकन दूर होकर हृदय मजबूत बनता है । गले के तमाम रोग नष्ट होते हैं । आवाज मधुर बनती है । श्वास की क्रिया व्यवस्थित चलती है । मुखाकृति सुन्दर बनती है । आँखों की रोशनी बढती है और तमाम रोग दूर होते हैं । हाथ-पैर में होनेवाला कंपन रुकता है । शरीर का सौन्दर्य बढता है । पेट के स्नायुओं में qखचाव आने से पेट को अच्छा लाभ होता है । आँतों पर खूब दबाव पडने से पेट के अंगों पर भी दबाव पडता है । फलतः आँतों में पाचकरस आने लगता है इससे जठराग्नि तेज होती है, पाचनशक्ति बढती है । वायुरोग नष्ट होता है । पेट के क्षेत्र में रक्त का संचार अधिक होता है । धनुरासन में भुजंगासन और शलभासन का समावेश हो जाने के कारण इन दोनों आसनों के लाभ मिलते हैं । स्त्रियों के लिए यह आसन खूब लाभकारक है । इससे मासिक धर्म के विकार, गर्भाशय के तमाम रोग दूर होते हैं .
7. पवनमुक्तासन : शरीर में स्थित पवन (वायु) यह आसन करने से मुक्त होता है इससे इसको पवनमुक्तासन कहा जाता है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास पहले पूरक फिर कुम्भक और रेचक ।
विधि : भूमि पर बिछे हुए आसन पर चित्त होकर लेट जायें । पूरक करके फेफडों में श्वास भर लें । अब किसी भी एक पैर को घुटने से मोड दें । दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर उसके द्वारा मोडे हुए घुटनों को पकडकर पेट के साथ लगा दें । फिर सिर को ऊपर उठाकर मोडे हुए घुटनों पर नाक लगायें । दूसरा पैर जमीन पर सीधा रहे । इस क्रिया के दौरान श्वास को रोककर कुम्भक चालू रखें । सिर और मोडा हुआ पैर भूमि पर पूर्ववत् रखने के बाद ही रेचक करें । दोनों पैरों को बारी बारी से मोडकर यह क्रिया करें । दोनों पैर एक साथ मोडकर भी यह आसन हो सकता है । लाभ : पवनमुक्तासन के नियमित अभ्यास से पेट की चरबी कम होती है । पेट की वायु नष्ट होकर पेट विकार रहित बनता है । कब्ज दूर होता है । पेट में अफरा हो तो इस आसन से लाभ होता है । प्रातःकाल में शौचक्रिया ठीक से न होती हो तो थोडा पानी पीकर यह आसन १५-२० बार करने से शौच खुलकर होगा ।
लाभ : इस आसन से स्मरणशक्ति बढती है । बौद्धिक कार्य करनेवाले डॉक्टर, वकील, साहित्यकार, विद्यार्थी तथा बैठकर प्रवृत्ति करनेवाले मुनीम, व्यापारी आदि लोगों को नियमित रूप से पवनमुक्तासन करना चाहिए ।
8. सुप्तवज्रासन : सुप्तवज्रासन , ध्यान : विशुद्धाख्य चक्र में । श्वास दीर्घ, सामान्य ।
विधि : वज्रासन में बैठने के बाद चित्त होकर पीछे की ओर भूमि पर लेट जायें । दोनों जंघाएँ परस्पर मिली रहें । अब रेचक करते करते
बायें हाथ का खुला पंजा दाहिने कन्धे के नीचे और दाहिने हाथ का खुला पंजा बायें कन्धे के नीचे इस प्रकार रखें कि मस्तक दोनों हाथ के क्रास के ऊपर आये । रेचक पूरा होने पर त्रिबन्ध करें । दृष्टि मूलाधार चक्र की दिशा में और चित्तवृत्ति मूलाधार चक्र में स्थापित करें ।
लाभ : यह आसन करने में श्रम बहुत कम है और लाभ अधिक होता है । इसके अभ्यास से सुषुम्ना का मार्ग अत्यंत सरल होता है । कुण्डलिनी शक्ति सरलता से ऊध्र्वगमन कर सकती है । इस आसन में ध्यान करने से मेरुदण्ड को सीधा रखने का श्रम नहीं करना पडता और मेरुदण्ड को आराम मिलता है । उसकी कार्यशक्ति प्रबल बनती है । इस आसन का अभ्यास करने से प्रायः तमाम अंतःस्रावी ग्रन्थियों को, जैसे शीर्षस्थ ग्रन्थि, कण्ठस्थ ग्रन्थि, मूत्रपिण्ड की ग्रन्थि, ऊध्र्वपिण्ड तथा पुरुषार्थग्रन्थि आदि को पुष्टि मिलती है । फलतः व्यक्ति का भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास सरल हो जाता है । तन-मन का स्वास्थ्य प्रभावशाली बनता है । जठराग्नि प्रदीप्त होती है । मलावरोध की पीडा दूर होती है । धातुक्षय, स्वप्नदोष, पक्षाघात, पथरी, बहरा होना, तोतला होना, आँखों की दुर्बलता, गले के टॉन्सिल, श्वासनलिका की सूजन, क्षय, दमा, स्मरणशक्ति की दुर्बलता आदि रोग दूर होते हैं ।
9. योगमुद्रासन : योगाभ्यास में यह मुद्रा अति महत्त्वपूर्ण है इससे इसका नाम योगमुद्रासन रखा गया है ।
ध्यान : मणिपुर चक्र में । श्वास रेचक, कुम्भक और पूरक ।
विधि : पद्मासन लगाकर दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जायें । बायें हाथ से दाहिने हाथ की कलाई पकडें । दोनों हाथों को खींचकर कमर तथा रीढ के मिलन स्थान पर ले जायें । अब रेचक करके कुम्भक करें । श्वास को रोककर शरीर को आगे झुकाकर भूमि पर टेक दें । फिर धीरे धीरे सिर को उठाकर शरीर को पुनः सीधा कर दें और पूरक करें। प्रारंभ में यह आसन कठिन लगे तो सुखासन या सिद्धासन में बैठकर करें । पूर्ण लाभ तो पद्मासन में बैठकर करने से ही होता है ।
पाचनतन्त्र के अंगों की स्थानभ्रष्टता ठीक करने के लिए यदि यह आसन करते हों तो केवल पाँच-दस सेकण्ड तक ही करें, एक बैठक में तीन से पाँच बार । सामान्यतया यह आसन तीन मिनट तक करना चाहिए । आध्यात्मिक उद्देश्य से योगमुद्रासन करते हों तो समय की अवधि रुचि और शक्ति के अनुसार बढायें ।
लाभ : योगमुद्रासन भली प्रकार सिद्ध होता है तब कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है । पेट के गैस की बीमारी दूर होती है । पेट एवं आँतों की सब शिकायतें दूर होती हैं । कलेजा, फेफडे, आदि यथा स्थान रहते हैं । हृदय मजबूत बनता है । रक्त के विकार दूर होते हैं । कुष्ठ और यौनविकार नष्ट होते हैं । पेट बडा हो तो अन्दर दब जाता है। शरीर मजबूत बनता है । मानसिक शक्ति बढती है । योगमुद्रासन से उदरपटल सशक्त बनता है । पेट के अंगों को अपने स्थान में टिके रहने में सहायता मिलती है । नाडीतन्त्र और खास करके कमर के नाडी-मण्डल को बल मिलता है ।
इस आसन में सामान्यतया जहाँ एिडयाँ लगती हैं वहाँ कब्ज के अंग होते हैं । उन पर दबाव पडने से आँतों में उत्तेजना आती है । पुराना कब्ज दूर होता है । अंगों की स्थानभ्रष्टता के कारण होनेवाला कब्ज भी, अंग अपने स्थान में पुनः यथावत् स्थित हो जाने से नष्ट हो जाता है । धातु की दुर्बलता में योगमुद्रासन खूब लाभदायक है
10. वज्रासन : वज्रासन का अर्थ है बलवान स्थिति । पाचनशक्ति, वीर्यशक्ति तथा स्नायुशक्ति देनेवाला होने से यह आसन वज्रासन कहलाता है ।
ध्यान : मूलाधार चक्र में और श्वास दीर्घ ।
विधि : बिछे हुए आसन पर दोनों पैरों को घुटनों से मोडकर दोनोें एिडयों पर बैठ जायें । पैर को दोनों अँगूठे परस्पर लगे रहें । पैर के तलवों के ऊपर नितम्ब रहे । कमर और पीठ बिल्कुल सीधी रहे, दोनों हाथ को कुहनियों से मोडे बिना घुटने पर रख दें । हथेलियाँ नीचे की ओर रहे । दृष्टि सामने स्थिर कर दें । पाँच मिनट से लेकर आधे घण्टे तक वज्रासन का अभ्यास कर सकते हैं । वज्रासन लगाकर पीछे की ओर भूमि पर लेट जाने से सुप्त वज्रासन होता है ।
लाभ : वज्रासन के अभ्यास से शरीर का मध्यभाग सीधा रहता है । श्वास की गति मन्द पडने से वायु बढती है । आँखों की ज्योति तेज होती है । वज्रनाडी अर्थात् वीर्यधारा नाडी मजबूत बनती है । वीर्य की ऊध्र्वगति होने से शरीर वज्र जैसा बनता है । लम्बे समय तक सरलता से यह आसन कर सकते हैं । इससे मन की चंचलता दूर होकर व्यक्ति स्थिर बुद्धिवाला बनता है । शरीर में रक्ताभिसरण ठीक से होकर शरीर निरोगी एवं सुन्दर बनता है । भोजन के बाद इस आसन में बैठने से पाचनशक्ति तेज होती है, भोजन जल्दी हजम होता है । पेट की वायु का नाश होता है । कब्ज दूर होकर पेट के तमाम रोग नष्ट होते हैं । पाण्डुरोग से मुक्ति मिलती है । रीढ, कमर, जाँघ, घुटने और पैरों में शक्ति बढती है । कमर और पैर का वायु रोग दूर होता है । स्मरणशक्ति में वृद्धि होती है । स्त्रियों के मासिक धर्म की अनियमितता जैसे रोग दूर होते हैं । शुक्रदोष, वीर्यदोष, घुटनों का दर्द आदि का नाश होता है । स्नायु पुष्ट होते हैं । स्फूर्ति बढाने के लिए एवं मानसिक निराशा दूर करने के लिए यह आसन उपयोगी है । ध्यान के लिए भी यह आसन उत्तम है । इसके अभ्यास से शारीरिक स्फूर्ति एवं मानसिक प्रसन्नता प्रकट होती है । दिन-प्रतिदिन शक्ति का संचय होता है इसलिए शारीरिक बल में खूब वृद्धि होती है । काग का गिरना अर्थात् गले के टॉन्सिल्स, हड्डियों के पोल आदि स्थानों में उत्पन्न होनेवाले श्वेतकण की संख्या में वृद्धि होने से आरोग्य का साम्राज्य स्थापित होता है । फिर व्यक्ति बुखार से सिरदर्द से, कब्ज से, मंदाग्नि या अजीर्ण जैसे छोटे-मोटे किसी भी रोग से पीिडत नहीं रहता, क्योंकि रोग आरोग्य के साम्राज्य में प्रविष्ट होने का साहस ही नहीं कर पाते ।
bahut hi badhiya jankari diya gya hai
ReplyDeleteBest Yoga Tips