मनोनिग्रह की मिहमा .


आज कल के नौजवानों के साथ बड़ा अन्याय हो रहा है | उन पर चारों ओर से विकारों को भड़कानेवाले आक्रमण  होते रहते हैं | एक तो वैसेही अपनी पाशवी वृतीयाँ  यौन उच्छंखलता की ओर प्रोत्सािहत करती हैं और दूसरी , सामािजक पिरिःसथितयाँभी उसी ओर आकषर्ण बढ़ाती हैं , इस पर उन प्रवुतियो  को वौज्ञािनक समथर्न मीलने लगेऔर संयम को हािनकारक बताया जाने लगे, कुछ कथाकथित  आचार्य  भी   फ्रायड जैसे नास्तिक एवंअधूरे मनोवैज्ञािनक के व्याभिचारशास्त्र को  आधार बनाकर ‘संभोग से समाधी ’ का उपदेश देने लगें तब तो इश्वर ही भ्रह्मचर्य  और दाम्पत्य जीवन की पवित्रता  का रक्षक है.



जब पश्चिम  के देशों में ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रारम्भ भी नहीं हुवा  था और मानव ने संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं किया था उस समय भारतवर्ष के दार्शनिक और योगी मानव मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं और समस्याओं पर गम्भीरता पुर्वक विचार कर रहे थे | फिर भी पाश्चात्य विज्ञान की छ्त्रछायामें पले हुए और उसके प्रकाश से चकाचौंध वर्तमान भारत के मनोवैज्ञािनक भारतीय नोवीवज्ञान का अस्तित्त्व तक मानने को तैयार नहीं हैं | यह खेद की बात है | भारतीय मनोवैज्ञािनकों ने चेतना के चार स्तर माने हैं : जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय |  पाश्चात्य मनोवेज्ञानिक प्रथम तीन स्तर को ही जानते हैं | पाश्चात्य मनोविज्ञान नास्तिक है | भारतीय मनोविज्ञान ही आत्मविकाश  और चरित्रनिमार्ण में सबसे अधिक  उपयोगी सिद्ध हुवा  है क्योंकी यह धर्म से अत्यधिक प्रभावित हे , भारतीय मनोविज्ञानआत्मज्ञान और आत्म सुधार में सबसे अधिक सहायक सिद्ध होता हे . इसमें बुरी आदतों को छोडने और अच्छी आदतों को अपनाने तथा मन की प्रक्रियाओ को समजने तथा उनका नियंत्रण करने के महत्व पूर्ण उपाय बताये गए हे .

पश्चिम की मनोवेज्ञानिक मान्यताओ के आधार पर विश्वशांति का भवन खड़ा करना बालू की नीव पर भवन निर्माण करने समान हे . पाश्चात्य मनोविज्ञान का परिणाम पिछले दो विस्वयुध के रूप में दिखलाई पड़ता हे , यह दोष आज पश्चिम के मनोवैज्ञानिको की समज में आ रहा हे . जब की भारतीय मनोविज्ञान मनुष्य का देवी रूपांतरण करके उसके विकाश को आगे बढ़ाना चाहता हे , उसके ' अनेकता में एकता ' के सिध्धांत पर ही संसार के विभिन्न राष्ट्रों , सामाजिक वर्गों , धर्म और प्रजातियो में सहिस्नुता ही नहीं , सक्रीय सहयोग उत्पन्न किया जा सकता हे . भारतीय मनोविज्ञान में शरीर और मन पर भोजन का क्या प्रभाव पड़ता हे इस विषय से लेकर शरीर मर विभिन्न चक्रों की स्थिति , कुंडली की स्थिति , वीर्य को उर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया आदि विषयों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गय हे . पाश्चात्य मनोविज्ञान मानव व्यव्हार का विज्ञान हे , भारतीय मनोविज्ञान मानस विकास के साथ साथ आत्मविज्ञान हे . भारतीय मनोविज्ञान इंद्रियनियंत्रण पर विशेष बल देता हे जबकि पाश्चात्य मनोविज्ञान केवल मानसिक क्रियाओ का मस्तिक - संगठन पर बल देता हे . उसमे मन द्वारा मानसिक जगत का ही अध्ययन किया जाता हे . उसमे भी प्रायड का मनोविज्ञान तो एक रुग्ण मन के द्वारा अन्य रुग्ण मनो का ही अध्ययन हे जबकि भारतीय मनोविज्ञान में इंद्रिय - निरोध से मनोनिरोध और मनोनिरोध से आत्मसिध्धि का ही लक्ष्य मानकर अध्ययन किया जाता हे . पाश्चात्य मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति का कोई समुचित साधन परिलक्षि नहीं होता जो उसके व्यक्तित्व में निहित निषेधात्मक परिवेशो के लिए स्थायी निदान प्रस्तुत कर सके . इसलिए प्रायड के लाखो बुध्दिमान अनुयायी भी पागल हो गए , संभोग के मार्ग पर चलकर कोई भी व्यक्ति योगसिध्ध महापुरुष नहीं हुवा , उस मार्ग पर चलनेवाले पागल हुवे हे , ऐसे कई नमूने दिखे गए हे . इससे विपरीत भारतीय मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति के विभिन्न उपाय बताये गए हे यथा योगमार्ग , साधन-चतुष्टय , शुभ - संस्कार , सत्संगति , अभ्यास , वैराग्य , ज्ञान , भक्ति , निष्काम कर्म आदि इन साधनों के नियमित अभ्यास से संगठित अवं समायोजित व्यक्तित्व का निर्माण संभव हे . इसलिए भारतीय मनोविज्ञान के अनुयायी पाणिनि और महाकवि कालिदास जैसे प्रारम्भ में अल्पबुध्धि होने पर भी महान विद्वान् हो गए . भारतीय मनोविज्ञान ने इस विश्व को हजारो महान भक्त ,समर्थ ,योगी तथा ब्रह्मज्ञानी महापुरुष दिए हे .

अत पाश्चात्य मनोविज्ञान को छोड़कर भारतीय मनोविज्ञान का आश्रय लेने में ही व्यक्ति , कुटुंब , समाज , राष्ट्र , और विश्व का कल्याण निश्चित हे .


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